गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

प्रेम समर्पण है, उसमें न स्वार्थ है न आसक्ति



एक दिन एक घर के बाहर बरामदे में अचानक चार लोग आ गए। वे घर के मुखिया की प्रतीक्षा करने लगे। ये चार थे- प्रेम, वैभव, सफलता और नीति। मुखिया ने प्रणाम किया और परिचय पूछा।
चारों ने बारी-बारी अपना परिचय बताया। उन्हें भीतर आने के लिए कहा तो वे बोले, हम सबको एक साथ अंदर आने की क्या जरूरत है। आप किसी एक को बुला लें। मुखिया असमंजस में पड़ गया कि किसे पहले बुलाएं। परिवार से विचारवि मर्श करने के लिए वापस लौट गया और परिवार के सदस्यों से सलाह करने लगा।
मुखिया की पत्‍नी बोली, हमें वैभव को पहले अंदर बुलाना चाहिए। उसके आने से बाकी की कमी भी पूरी हो सकती है। लेकिन उसकी बात काटते हुए मुखिया ने कहा,वैभव सफलता का मोहताज है। इसलिए सफलता को ही बुलाओ।
उसके साथ होने से वैभव अपने आप आ जाएगा।
इस पर बेटे ने सलाह दी,नहीं पिताजी, आप सबसे पहले नीति को बुलाइए। जहां नीति होती है, वहीं सफलता मिलती है और जहां सफलता मिलती है, वहां वैभव अपने आप आ जाता है। इसके बाद सभी बहू की राय जानने के लिए उसकी ओर देखने लगे। वह धीरे से बोली, मेरी मानिए तो आप लोग सबसे पहले प्रेम को ही बुलाइए। बाकी सभी तो बाहरी जीवन के मददगार हैं। घर-परिवार में सबसे बड़ा मित्र प्रेम ही होता है। प्रेम बना रहे तो अन्य आगंतुकों का सहचर्य किसी न किसी तरह हो ही जायेगा। बहू की सलाह पर मुखिया ने सबसे पहले प्रेम को निमंत्रित किया। लेकिन जैसे ही प्रेम भीतर आया तो उसके पीछे-पीछे बाकी तीनों भी आ गए।
आपने हम तीनों में से किसी एक को बुलाया होता, तो हम अकेले ही आते। पर प्रेम जहां जाता है, वहां हम अवश्य साथ होते हैं। वे अंदर आते ही बोले।
यह तो एक कथा है, लेकिन जिंदगी में प्रेम को आगे रखने पर अच्छा ही होता है। प्रेम प्रकाश की राह दिखाता है। उसके पथ पर चलने वाला अपने प्रेम स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करता है। जिस प्रेम की चर्चा यहां हो रही है, वह बिकाऊ नहीं है। उसी के कारण यह सारा संसार टिका हुआ है। प्रेम किसी जाति-धर्म के बंधन में नहीं रहता।
उसकी कोई कोई सीमा भी नहीं होती। आकाश से भी विशाल, समुद्र की गहराई से भी कई गुना ज्यादा गहरा, हवा से भी ज्यादा हल्का, वह हर जगह मौजूद है।
जब दो प्रेमी आपस में मिलते हैं, तो मात्र उसकी चर्चा होती है। प्रेम जब रग-रग में खिल उठता है, तो जीवन धन्य हो जाता है। प्रेम तो समर्पण का भाव है। उसमें न स्वार्थ है, न आसक्ति।
ऐसे अनोखे प्रेम के कारण ही राधा कृष्णमय हो गईं और कृष्ण राधा स्वरूप हो गए।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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