बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

बच्चों में करें श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण


                       

तेरे दिमाग में तो गोबर भरा है .., तू तो पूरा ढक्कन है..!, क्या तू घास खाता है..?, तू तो पूरा पागल है.., तेरा मार- मारकर भुर्ता बना दूंगा, बड़ा होकर तू चपरासी भी बन जाए तो अपने को खुशकिस्मत समझ लेना.. इस प्रकार के कुछ वाक्य प्राय: हम कुछेक घरों में अभिभावकों द्वारा बच्चों को बोलते हुए सुनते हैं। इस प्रकार की भाषा का प्रयोग अनुचित है। इससे बच्चा कुंठित होता है तथा उसका आत्मविश्वास डगमगाता है तथा वह पढ़ाई तथा जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जाता है। बच्चों का आत्मविश्वास कैसे बढ़ाया जाए तथा उसका व्यक्तित्व कैसे निखारा जाए, आइए जानते हैं : -
शालीन भाषा का प्रयोग करें बच्चों से हम हमेशा शालीन भाषा का प्रयोग करते हुए ही वार्तालाप करें। इससे बच्चों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। हमको हमेशा बच्चों से मित्रवत व्यवहार ही करना चाहिए, न कि शत्रुवत। जैसा हम आचरण करते हैं, बच्चे भी वैसा ही सीखकर अपने व्यवहार में ढालते हैं अत: शालीनता सर्वोपरि है। यह तयप्राय: है कि जैसी भाषा का हम बार-बार प्रयोग करते हैं, वैसी की वैसी ही भाषा एक विज्ञापन ( मनोविज्ञान) के प्रचार अभियान की तरह बच्चों के मन-मस्तिष्क में घर करती जाती है तथा बच्चा धीरे-धीरे उसे ही सच मानने लग जाता है एवं उसकी वास्तविक प्रतिभा कहीं खो-सी जाती है अत: उसे कुंठित न करें।
ढीठ न बनाएं बच्चों को ज्यादा डांटने-फटकारने, मारने-पीटने से बच्चा ढीठ बन जाता है फिर उस पर किसी बात का असर नहीं होता है, क्योंकि उसे पता रहता है मैं अच्छा या बुरा जो भी करूं, बदले में मुङो डांट-फटकार ही मिलेगी, प्यार-दुलार नहीं। ऐसी स्थिति में बाद में आगे चलकर बच्चा विद्रोही बन जाता है, जो कि समाज के लिए काफी घातक सिद्ध होता है।
कोमल दिल होता है बच्चों का बच्चों का दिल फूल-सा कोमल होता है। इसे कटाक्ष तथा तीखे व्यंग्य-बाणों से कुचलना नहीं चाहिए। उन्हें प्यारभरी मुस्कुराहट के साथ समझना चाहिए। बच्चे कच्ची मिट्टी के लौंदे के समान होते हैं। उन्हें जिस आकार में गढ़ोगे वह उसी समान हो जाते हैं अत: श्रेष्ठ संस्कारों की नींव बच्चों में बचपन से ही डालनी चाहिए ताकि आगे चलकर यह बच्चे समाज के श्रेष्ठ नागरिक बनें।
अलग-अलग मनोविज्ञान बच्चे और बड़ों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है। मनोविज्ञान यानी सोचने-समझनेवि चारने का तरीका। अगर बड़े यह सोचें कि बच्चे भी मेरा ही अनुसरण करें व मेरी ही दिखाई राह पर चलें, व मेरे जैसा ही बने तो यह बड़ों का हठाग्रह व दुराग्रह ही कहा जाएगा। चूंकि बड़े समयानुसार अनुभव व परिपक्वता से लबरेज होते हैं अत: बच्चों से भी वही अपेक्षाएं करना नितांत ही गलत कहा जाएगा।
जन्म से सीखकर नहीं आता कोई भी बच्चा जन्म से ही सबकुछ सीखकर नहीं आता है। उसे तो वातावरण में जो कुछ देखने-सुनने, सोचने-समझने को मिलता है वह वैसा ही आचरण करता है। अगर उसे बचपन से ही श्रेष्ठ माहौल व आचरण देखने को मिलेगा तो वह भी उसी प्रकार का आचरण करेगा। बच्चों को श्रेष्ठ वातावरण व आचरण देने में मां की महत्तवपूर्ण भूमिका होती है अत: माता का आचरण श्रेष्ठ होना नितांत ही जरूरी है।
अच्छे दोस्तों की संगति दें बच्चे और खेलकूद.. ये दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। छोटे से लगाकर बड़े बच्चों तक को खेलकूद काफी पसंद आता है। खेलकूद से उनका मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही उनमें प्रतिस्पर्धी भावना का भी विकास होता है। इससे उनका शारीरिक विकास तो होता ही है वे तनावमुक्त भी होते हैं व पढ़ाई में भी अग्रणी रहते हैं। पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगेकूदो गे बनोगे खराब ऐसा कहना पूर्णतया ठीक नहीं कहा जा सकता है। कई खिलाड़ियों की ओर अगर हम नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि उन्होंने खेलों के माध्यम से काफी मान व माल कमाया है। इनकी दौलत व शोहरत को देखकर नौकरी वाले भी शरमा सकते हैं।
इसलिए उन्हें हमेशा खेलने-कूदने के लिए प्रेरित करें लेकिन साथ ही उनकी पढ़ाई का भी ध्यान रखें। अत: यह जरूरी है कि बच्चों को बचपन से ही श्रेष्ठ संस्कार दिए जाएं ताकि उनके व्यक्ति सही तरह से विकास हो सके और वे समाज में भी अच्छी बातों को प्रोत्साहित करने का जिम्मा उठाएं।

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Source – KalpatruExpress News Papper

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