बुधवार, 9 अप्रैल 2014

घूंघट की आड़ नहीं फिर भी मैं शर्मसार नहीं



भी मैं शर्मसार नहीं जया वर्मा शर्म के मायने थोड़े अलग हैं मेरे लिए। मुङो शर्म नहीं आती जीन्स पहनकर बाहर जाने में । शर्म नहीं आती किसी बहस का हिस्सा बनने में । मुङो इस बात पर भी शर्म नहीं आती कि इन सब बातों पे मुङो शर्म क्यूं नहीं आती।
लेकिन मेरा दिल शर्मसार हो जाता है। तब जब समाज तरह-तरह के रीति-रिवाजों और कई ढकोसलों की आड़ में मुङो दफनाने और कुचलने की कोशिश करता है और हर बार करता है। जब समाज मुङो मेरा अपना नाम चुनने की आजादी दे पाने में असहाय हो जाता है ।
मुङो देवी कहता है खुद की महानता सिद्ध करने के लिए और दूसरी तरफ मेरी आत्मा को नोच-नोच कर खा जाता है। हां, तब मुङो बहुत शर्म आती है, ऐसे समाज का हिस्सा होने पर। जब मुङो अपने फैसले लेने के लिए सही वक्त की समझ दूसरों से उधार मिलती है। मसलन, चेहरे की चमक जाने से पहले मुङो शादी कर लेनी चाहिए। एक औरत होने के नाते किस करियर को चुनना चाहिए।
इस बात को दरकिनार करते हुए कि मुङो असल में क्या पसंद है। मैं अपने औरत होने के सच की पगडण्डी पर संभल-संभल कर चलती रहूं और मुङो हर उम्र में, आस-पास खड़े दार्शनिक सलाह देते रहें। हवा में रस्सी पर चलने वाले नट के जैसी है मेरी जिन्दगी। अपनी एक छोटी सी ख्वाहिश, छोटे से सपने का वजन मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। सपना देखा और ये गिरी मैं रस्सी से और वो गिरा मेरा चरित्र, एक आदर्श औरत का चरित्र। जिस पश्चिमी सभ्यता को हम कोसते हैं मैं पूरी तरह उसका अंधा विरोध नहीं करती। वहां विश्वसुंदरियों, अभिनेत्रियों को शादी और मातृत्व-सुख के बाद बेकार समझ नकारा नहीं जाता । सिगरेट पीने वाले मर्दो को अवसाद-ग्रसित और सिगरेट पीने वाली औरतों को चरित्रहीन कहने वाली दोहरी सोच पश्चिम में नहीं पूर्वी देशों में ही है। वहां पत्‍नी के नाम से अगर पति जाना जाये तो पुरुष की नाक नहीं कटती। चाहे उस देश के राष्ट्रपति हों या कोई अंतरराष्ट्रीय अभिनेता या खिलाड़ी। इस बात का सबसे पुख्ता सुबूत है अभी तक ब्रिटिश राजसी परिवार में रानी के पद का दबदबा।
यह उन्ही पश्चिमी देशों में मुमकिन है कि औरतों के साथ हुए अत्याचार पर बड़े से बड़े प्रभावी व्यक्तित्व वाले लोगों को भी कठघरे में खड़ा करने की कूवत है लोगों में और यहा औरत की कोई कीमत नहीं। कोई कीमत नहीं और यह बहुत कड़वा सच है।
यहां जो चाहे बलात्कार कर फेंक दे किसी भी बच्ची या महिला को। चाहे बड़ा नेता हो, कोई मध्य वर्गीय आदमी, कोई बस-कंडक्टर, चाचा, मामा , नाना। किसी को डरने की जरूरत नहीं। धड़ल्ले से इज्जत लूटो और मारकर फेंक दो। इससे ज्यादा आसान आदर्श देश मर्दो को और कहां मिलेगा। गया वो वक्त जब राजपूत रानियों के एक पत्र और राखी की झलक से मुगल बर्बरता का भी ह्रदय पिघल जाता था। अब तो घर में ही हवस घर कर गयी है। राखी बस नाम की रह गयी है। शर्म आनी चाहिए हमें खुद को विकसित देश कहने पर। क्योंकि यहां आदर्श का अर्थ है गला घोटना किसी की चाहत और उम्मीद का। किसी के सपने का। विकसित तो हम तब थे जब सीता आजाद थीं, खुद स्वयंवर कर अपना वर चुनने के लिए, जब निश्चिंत राधा रचा पायीं बेदाग प्रेम कृष्ण से। अब तो लड़कियां गाद दी जाती हैं अपना वर चुनने के लिए। अपने ही बाप के हाथों। कैसे कहूं मैं इस भारत को आदर्श और विकसित देश।
अगर मैं वाकई में देवी हूं तो मुङो अपनी ही कोख पर कोई हक कैसे नहीं।
गर्भ में पलने वाला बच्चा हो या बच्ची इसका चुनाव मुङो छोड़ हमेशा समाज क्यों करता आया है। क्यों दरिंदों का सामना करने के लिए मुङो अपने ही घर के लोग मजबूत नहीं बनाते। मैं पढूं लिखूं या खेत में काम करूं। मैं हर हाल में कमजोर क्यों हूं। मेरे चरित्र का निर्धारण हमेशा मेरे कपड़ों से क्यों होता आया है। पति का नाम स्वीकार न करना मुङो विवादस्पद बना देता है। क्यूं घर के फैसलों में मेरी कोई भूमिका नहीं। टाट पर रेशम के पैबंद जैसा है ये समाज।
जर्जर सोच के साथ हल्के अंदाज में यह कहना कि हम आदर्शवादी और विकसित हैं , कितना असंजीदा मजाक है। इस नए वक्त में सख्त दरकार है कि हम शीशे की तरह साफ चमकदार सोच को अपने भीतर आने दें। खोखले बड़बोले व्यक्तित्व से निकल कर खामोश लेकिन एक मजबूत समाज को बनने की कोशिश करें। सब मिलकर, हम सब मिलकर।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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