मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

विज्ञान प्रश्नोत्तरी



1-    आपदा प्रबंधन के लिए सैटेलाइट रिमोट सेंसिंग और जीआईएस तकनीक की क्या उपयोगिता है?
उत्तर- जी आई एस अर्थात भौगोलिक सूचना प्रणाली और उपग्रह आधारित सुदूर संवेदन अर्थात सैटेलाइट रिमोट सेंसिंग तकनीकों के विकास से आपदा प्रबंधन में और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन दोनों में क्रान्तिकारी लाभ हुआ है, क्योंकि रिमोट सेंसिंग की तकनीक से किसी वस्तु के भौतिक संपर्क में आये बिना ही उसके विषय में जानकारी प्राप्त हो जाती है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संस्थान संगठन के प्रयासों से भारतीय स्वनिर्मित प्रक्षेपण वाहनों के द्वारा अनेक स्वदेशी और विदेशी रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया है।
वर्तमान समय में भारत के द्वारा रिसोर्स से उच्च सेंसर पृथ्वी की कक्षा में स्थापित हो चुके हैं। इन उपग्रहों के माध्यम से देश के विभिन्न हिस्सों के स्थानीय, स्थलीय जलीय तटीय क्षेत्रों का उपग्रहीय चित्र प्राप्त किया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें प्रोसेस करके मानचित्रण हेतु उपयोग किया जाता है। जीआईएस, भौगोलिक सूचना प्रणाली, बहुत त्वरित गति से कार्य करने वाली कंप्यूटर आधारित आंकड़ा प्रबंधन एवं विेषण प्रणाली है जिसके माध्यम से भूगर्भीय, भूपर्यावर्णीय, मानवीय कारकों को मानचित्रों के माध्यम से संगृहित किया जाता है और किसी विशेष क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक और मानवीय बस्तियों से सम्बंधित आंकणों को पहले मानचित्रों में परिवर्तित किया जाता है और उसकी सहायता से उस क्षेत्र के आपदा संवेदनशीलता के मानचित्रों से जोड़ कर एक साथ फिर से मानचित्रों में परिवर्तित किया जाता है। उसके उपरान्त उस क्षेत्र विशेष की जोखिम और घातकता का आंकलन किया जाता है। आपदा प्रबंधन चक्र के अन्य अवयव के कार्यान्वयन के लिए रिमोट सेंसिंग और जीआईएस की भूमिका में अन्य बातें भी सम्मिलित हैं। जैसे- भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों का मानचित्रण और उनकी पहचान, बाढ़ की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान, जोखिमों का आंकलन, आपदाग्रस्त क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार और क्षति आंकलन इत्यादि। उपग्रहीय चित्रों के विेषण से प्राप्त सूचनाओं को जीआईएस से सम्बंधित क्षेत्र के अन्य भूपर्यावर्णीय कारकों; वर्षा, मृदा अपरदन से तेजी से बना ढलान, के साथ एकीकृत करके प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, भूस्खलन, वनों में लगी आग को दृष्टिगत करते हुए मानचित्रीकरण और चिन्हित किया जाता है और इन्हें उच्चतम, उच्च, मध्यम और निम्न संवेदनशीलता की श्रेणी में रखकर मानचित्रित किया जाता है। इन मानचित्रों और आंकणों को बाढ़ की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए भी उपयोग किया जाता है और इन्हें कंप्यूटर आधारित डिजिटल विेषण से किसी नदी के जल ग्रहण क्षेत्र की स्थलाकृति; टोपोग्राफी, जिओमॉफरेलॉजी, सूक्ष्म जल संग्रहण क्षेत्रों की पहचान की जाती है। फिर इनको जीआईएस के द्वारा समाहित करके उस क्षेत्र के ढलान और पिछले वर्षो के वर्षा के स्तर, बाढ़ की सीमा, जलमग्न क्षेत्रों के विस्तार की सीमा को मानचित्रों के साथ जोड़कर सर्वाधिक, अत्यधिक, अधिक, मध्यम और निम्न फ्लड हजार्ड जोनेशन की श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार किसी नदी विशेष के जल ग्रहण क्षेत्र में अत्यधिक, अधिक, कुछ ही घंटों में कई सौ मिमी वर्षा और मध्यम वर्षा को जीआईएस और डिजिटल इमेज प्रोसेसिंग से सम्बंधित करके बाढ़ के डर की गणना की जाती है जिससे यह भी जाना जा सके कि अत्यधिक वर्षा होने पर नदी पर बने बांधों और जलाशयों के स्तर के खतरे से कैसे निपटा जा सकेगा। यह भी जाना जा सकता है कि खतरे के निशान से ऊपर पानी बढ़ने पर बाढ़ के विभिन्न परिदृश्य क्या होंगे। बल्कि इन दृश्यों को कंप्यूटर में डिजिटल इमेज की प्रोसेसिंग से देखा भी जाता है और विेषित किया जाता है। जीआईएस तकनीक की सहायता से संकरी घाटियों में नदी तट के निकट कुछ मीटर ऊंचाई पर बने हुए भवन और झोपड़ियों का चिन्हांकन कर क्लाउड बस्र्ट से होने वाली त्वरित बाढ़ पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। इन तकनीकों के माध्यम से अस्थिर ढलान या भूस्खलन वाले क्षेत्रों में बने गांवो और भवनों की संख्या का आंकलन भी किया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क निर्माण और अन्य निर्माण के लिए ब्लास्टिंग के द्वारा कटाई, मलबे का गैर योजनाबद्ध तरीके से निस्तारण और अनावश्यक मानवीय हस्तक्षेप का भी आंकलन किया जाता है। नदियों के बहाव में भविष्य में होने वाले ऐसे परिवर्तन जो कि आंशिक या पूर्ण रूप से गांवो और शहरों को प्रभावित करते हैं उनका भी चिन्हांकन किया जाता है। बीमारियों का स्नेत बनने वाले ऐसे इलाके जहां कूड़े का ढेर और औद्योगिक इकाइयों का अपशिष्ट होता है उसका भी चिन्हांकन कर मानचित्रण किया जाता है। इस प्रकार नियोजन से सम्बंधित सभी आवश्यकताओं को इन तकनीकों के माध्यम से सुगम बनाया जा सकता है। जीआईएस आधारित संसाधन का उपयोग कर आपदा प्रबंधक किसी क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनो की तुरंत जानकारी प्राप्त करके अपने लिए आवश्यक जानकारियों का मांगपत्र भेज सकता है। इन जानकारियों से बहुत लाभ हो सकता है । संभवत: आगामी वर्षो में हमारे देश में अधिकांश गांवो की आपदा प्रबंधन कार्ययोजना के सृजन में रिमोट सेंसिंग और जीआईएस की बहुत बड़ी भूमिका होगी। हम आगामी वर्षो में नगरपालिका वार्ड तथा ग्राम स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन का एक सशक्त और प्रभावी ढांचा तैयार कर सकते हैं और मानवजनित आपदाओं के संभावित सूचना से भी अवगत हो सकते हैं और बचाव कर सकते हैं।
2-    भेदभाव की भावना मनुष्यों के अलावा क्या जीव जंतुओं और वनस्पतियों में भी पायी जाती है? यदि ऐसा है तो इसका वैज्ञानिक पहलू क्या हो सकता है?
उत्तर- हम सभी अध्ययन की सुविधा के लिए प्राणी जगत और वनस्पति जगत की संकल्पना से अवगत हैं और यह आवश्यक भी है। परन्तु मनुष्यों की दुनिया में भेदभाव, जाति-पाति को ठीक नहीं समझ जाता है, इन बातों की अक्सर आलोचना की जाती है, परन्तु ध्यान से देखा जाए तो यह लगता है कि भेदभाव समाज के लिए हानिकारक ही हो ऐसा नहीं है। यह उपयोगी भी हो सकता है, जैसे वनस्पतियों को देखा जाये तो कृषि की बहुत सी फसलें अपनेअ पने शिकार में भेद भाव भली-भांति करना जानती हैं। लाइकेन की बहुत सी प्रजातियां कुछ चुनिन्दा वृक्षों पर ही उगती हैं। यदि ये किसी अन्य वृक्ष पर उगेंगी तो इनके लक्षणों में परिवर्तन हो जाता है। कुछ जंतु अपनी जीवनचर्या के लिए किसी विशेष पौधे पर उगते हैं और कुछ जंतु भी पौधों की गिनी चुनी जातियों से ही सम्बंध स्थापित करते हैं जैसे रेशम का कीड़ा शहतूत और पोपलर के पौधे पर ही बड़ा होता है, यह कहीं और नही हो सकता और लाख का कीड़ा भी कुछ ऐसा ही करता है। ऐसी ही अवस्था वनस्पतियों की भी है इसका बहुत ही सुन्दर उदहारण हिमालय के क्षेत्र में कीड़ा जड़ी के नाम से प्रसिद्ध कवक का है जिसे यार सा गुम्बा भी कहते हैं। यह कवक ऊर्जा और शक्ति का अपार स्नेत माना जाता है, यह एक औषधीय स्नेत है। चीन में यह कीड़ा जड़ी बहुत महंगी बिकती है। यह कवक कार्डीसेप्स वंश के कैटरपिलर लार्वा की स्थिति की कुछ ही जातियों में पलता और बड़ा होता है। यह उस कैटरपिलर के मुख से उसके शरीर में प्रवेश करता है और कुछ ऐसे द्रव स्नवित करता है जिससे कीड़ा मर जाता है और मरकर फूल जाता है और सूख भी जाता है परन्तु कवक उसे अपना घर बना लेता है। ग्रीष्मकाल में यह अपने पल्लवित रूप में सभी लोगों को दिखाई देता है। अपने नारंगी भूरे रंग में यह कवक उस मरे हुए कीड़े के शरीर पर ही बड़ा होता है और लगभग 10 सेंटीमीटर की लम्बी घास जैसी संरचना के रूप में दिखाई देता है, जिस पर बहुत से स्पोर भी लगे होते हैं। रंगीन होने के कारण गांव के लोग इसे खोद कर निकालते हैं और इसे बेचते हैं। इस व्यवसाय में लगे लोग बहुत पैसे वाले भी हो गए हैं। भूमि से उखाड़ने से पहले कवक के कुछ स्पोर जमीन पर फैल भी जाते हैं जिससे नए कवक जाल माइसीलियम भी बन जाते हैं और नए कीड़े को ढूंढना शुरू कर देते हैं इस प्रकार कीड़ा जड़ी की नयी फसल की रूपरेखा भी तैयार रहती है। ग्रामीणों में इसे लेकर आये दिन संघर्ष भी होते रहते हैं। उत्तराखंड में प्रोफेसर चन्द्र सिंह नेगी के अनुसार इस पदार्थ का उत्तराखंड में सर्वेक्षण करके इसकी कृषि, दोहन इत्यादि पर नियंत्रण का सुझव उन्होंने शासन को दिया है।
यह कीड़ा जड़ी उत्तराखंड, नेपाल, सिक्किम, भूटान, चीन और दक्षिण पर्वतीय प्रदेशों में होती है। इस तरह हम देखते हैं कि जाति-पाति वनस्पतियों और जन्तुओं में मनुष्यों से कहीं अधिक उपस्थित है, बल्कि मनुष्य उसका आर्थिक लाभ भी उठा रहे हैं। एक ही जाति के जीव जंतुओं में काफी विभिन्नताएं हो सकती हैं। पौधों और जंतुओं में जातियों से ऊपर के स्तर को वंश कहते हैं और कई वंश मिलकर एक फैमिली बनाते हैं। यह सत्य है कि इस सृष्टि के सभी जीवधारी भिन्न-भिन्न स्तर पर नाना प्रकार से भेद-भाव करते हैं। मनुष्य में जातियों के बीच जो प्राकृतिक और सामाजिक भेदभाव है उसका दिन प्रतिदिन समाज पर दुष्प्रभाव दिखाई देता है। परन्तु जीव-जंतुओं में सभी प्रकार की भिन्नता होते हुए भी पर्यावरण में प्राकृतिक रूप से अच्छा संतुलन है। मनुष्यों ने भले ही अपने कुछ कृत्यों से उसमे विषमता ला दी है, परन्तु मनुष्य ही उसे दूर करने का प्रयास भी करता है। आशा है कि प्रकृति से हम शिक्षा लेते रहेंगे।
प्रस्तुति-वंदिता मिश्रा
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Source – KalpatruExpress News Papper






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