सोमवार, 26 मई 2014

जैसा जीवन, वैसी कविताएं



पंकज चौधरी मृत्युंजय प्रभाकर की कविताओं को पढ़ने पर पता चलता है कि उनकी कविताओं में 
उनके निजी अनुभव ज्यादा व्यक्त हुए हैं। यह बात अलग है कि कविता में आकर उनके अपने 
 अनुभव पर्सनल नहीं रह जाते और वह अपने समय और समाज के अनुभव-से लगने लगते हैं।
किसी के पर्सनल अनुभव तभी समय और समाज के अनुभव-से लगने लगते हैं जब उसका 
ईमानदारीपूर्वक बयान किया गया हो और उसमें मिर्च- मसाले नहीं लगाए गए हों। एक रचनाकार के 
लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि कैसे उसका यथार्थ इस दुनियावी समय और समाज के 
 यथार्थ-सा लगे-बड़ों के सामने अब झुकने लगा हूं/ लोगों को वांछित महत्व देने की कोशिश करता 
हूं/ हालांकि ऐसा नहीं कि पहले/ किसी दुर्भावनावश नहीं देता रहा/ उन्हें वांछित सम्मान/ पर उसकी 
जरूरत नहीं पड़ती थी/ मेरा अब का झुकना जरूरत के सामने का झुकना है/ यह चलन भी इसी 
सभ्य दुनिया से चुराया है। ऐसा क्यों नहीं होता कि हमारा जीवन जैसा है, हमें सर्वाइव करने के लिए 
जो कुछ भी करना पड़ता है, कविता में भी हम वैसा ही जीवन दिखाते।
और यह कैसे हो सकता है कि सिस्टम को तो हम भ्रष्ट और अमानवीय बता रहे हों लेकिन खुद को 
दूध का धुला हुआ। इससे तो सहज ही यह सवाल पैदा हो जाता है कि जब सिस्टम ही करप्ट हो तो 
 हम कैसे अपनी ईमानदारी और नैतिकता को बरकरार रखते हुए आराम की जिंदगी फरमा रहे हैं। 
इसलिए मृत्यंजय प्रभाकर ऐसी कविताएं नहीं लिखते, जिसमें हमारे जीवन का अक्श नहीं हो। वे पूरी 
ईमानदारी से अपनी कमजोरियों और लालच को अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं-सामने की थाल 
का लड्डू/ खींचता है उतना ही/ जितनी जोर से नकारते हैं हम/ स्वीकार नहीं कर सकते मगर/ हर 
उस चीज के प्रति मैं/ आकर्षण महसूस करता हूं/ जिनसे वंचित रहा हूं। मृत्युंजय प्रभाकर की ये 
विताएं उन क्रांतिकारी और स्वनामधन्य कवियों के गाल पर तमाचा जड़ने का काम करती हैं जो 
सिस्टम को तो दिन-रात भ्रष्ट, अमानवीय और अनैतिक बताते नहीं थकते, लेकिन अपने आप की 
रम अशुद्धता, परम अनैतिकता, परम अमानवीयता और परम बेईमानी पर ध्यान नहीं देते। प्रसिद्ध 
कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव समेत कई लेखकों का मानना है कि हमारा समय गद्य 
(कहानी, उपन्यास) में दर्ज हो रहा है और कविताएं समकाल की उलझनों को साहित्य में दर्ज कराने 
में असमर्थ साबित हो रही हैं।
राजेंद्र यादव की बातों पर गौर करें तो पता चलता है कि वर्तमान की अनेकानेक प्रवृत्तियां 
 कविताओं में सायास या अनायास दर्ज नहीं हो रही हैं। मुख्यधारा के कवि, जिसको हम कहते हैं वे 
समाज के एक बड़े हिस्से 
की पीड़ाओं को जान- बूझकर कविताओं में दर्ज नहीं करते। वे अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं 
और अभी भी समाज में जाति (वर्ण) के आधार पर निर्बाध भेदभाव जारी है, को मानने से इनकार 
करते हैं। भले ही वे खुद आपादमस्तक जातिवादी क्यों न हों। कभी-कभी मुङो हैरत होती है कि 
जिस देश में जन्म से लेकर मृत्यु तक समाज के एक बड़े हिस्से को जाति दंश से जूझते रहना 
पड़ता है, उस पर समकालीन हिंदी कविता में एकाध अपवाद को छोड़कर कुछ भी नहीं लिखा गया है 
तो तथाकथित जन सरोकारी कविता को पूरी तरह रिजेक्ट करने का मन करने लगता है। समकालीन हिंदी कविता की दरिद्रता यहीं उजागर होती है और दलित कवियों को जन्म लेने का यहीं सुनहरा अवसर मिलता है। 
दलित कविता समकालीन हिंदी कविता की इसी कमी को दूर करने में लगी हुई है।
एक बात और गौर करने वाली है कि हिंदी में दलित कविता के प्रादुर्भाव का सबसे बड़ा फायदा यह 
हुआ है कि इससे नई पीढ़ी कतिपय कारणों से प्रेरणा ग्रहण कर रही है और वह अपने विशिष्ट् 
अनुभव को समकालीन कविता में टांकने से वंचित नहीं हो रही-हकीकत नहीं हो पाया/ क्योंकि मेरे 
दुमछल्ले में/ कोई गांधी, बच्चन तो क्या/ तिवारी, शर्मा, वर्मा, सिंह तक नहीं लगा है/ जो मुङो रखता 
हर कतार में/ सबसे आगे। मृत्युंजय प्रभाकर की यह टीस देश की 85 प्रतिशत जनता की टीस है,
जिसको नोटिस नहीं किया जाता है।
समकालीन हिंदी कवि स्त्री विषय-वस्तु से संबंधित कविताएं खूब लिखते हैं। यह बात अलग है कि 
उनकी ये कविताएं स्त्री विमर्श के लिए साजो-सामान मुहैया नहीं करातीं और अभी भी स्त्रियां इनके 
हां प्रेम, समर्पण, सेवा, सौन्दर्य और त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप में ही सामने आती हैं-प्यार इतना कि 
समंदर भी/ पानी मांग ले/ कातरता तो खरगोश की आंखों को भी कर देती है फीका/ अपने बच्चों में 
ढूढ़़ती हैं खुशियां/जबकि बच्चों ने अपनी खुशियां कहीं और ही ढ़ूढ़ रखी हैं। मृत्युंजय प्रभाकर के यहां 
गांव की औरतें आती हैं। ऐसी औरतें जिनका श्रम ही सौन्दर्य है। उल्लेखनीय है कि ये औरतें 
 समकालीन हिंदी कविता के वृत्त से बाहर होती जा रही हैं-कपड़ों, मिट्टी, गोबर और दूध में/ सना था 
उनका जीवन/ घर के भीतर से/ चूल्हे से उठता धुआं/ उनके बाहर का विस्तार था/ और उनके दर्द 
का भी।
इस तरह हम देखते हैं कि मृत्युंजय अपने कवि-कर्म का पूरी ईमानदारी से निर्वाह करते हुए 
 समकालीन हिंदी कविता की परिधि का विस्तार कर रहे हैं।
जो मेरे भीतर है संग्रह में कई ऐसी उल्लेखनीय कविताएं हैं जो मृत्युंजय प्रभाकर को एक 
 प्रतिभाशाली कवि के रूप में सामने लाती दिखती हैं।
कविता संग्रह –जो मेरे भीतर है
कवि- मृत्युंजय प्रभाकर
प्रकाशन- साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
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Source – KalpatruExpress News Papper













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