सोमवार, 26 मई 2014

विश्व कविता



बर्तोल ब्रेख्त
आने वाली पीढ़ियों से -
1. सचमुच, मैं एक अँधेरे व़क्त में जीता हूँ !
सीधा शब्द निबरेध हैं।
बिना शिकन पडा माथा लापरवाही का निशान।
हँसने वाला को खौफ़ नाक
ख़बर अभी तक बस मिली नहीं है।
कैसा है ये व़क्त, कि
पेड़ों की बातें करना गभग ज़ुर्म है
क्योंकि उसमें कितनी ही दरिंदगियों पर ख़ामोशी शामि है !
बेफ़िक्र सड़क के उस पार जानेवाला
अपने दोस्तों की पहुँच से बाहर तो नहीं चला गया
जो मुसीबतज़दा हैं?
यह सच है : कमा लेता हूँ अपनी रोटी अभी तक
पर यकीन मानो : यह सिर्फ़ संयोग है। चाहे
कुछ भी करूँ, मेरा हक़नहीं बनता कि छक कर पेट भरूँ।
संयोग से बच गया हूँ।
(किस्मत बिगड़े, तो कहीं का न रहूँ)
मुझसे कहा जाता है : तुम खाओ-पीओ ! ख़ुश रहो कि
ये तुम्हें नसीब है।
पर मैं कैसे खाऊँ, कैसे पीऊँ, जबकि
अपना हर कौर किसी भूखे से छीनता हूँ, और
मेरे पानी के गिास के िए कोई प्यासा तड़प रहा हो ?
फिर भी मैं खाता हूँ और पीता हूँ।
चाव से मैं ज्ञानी बना होता
पुरानी पोथियों में लिखा है, ज्ञानी क्या होता है :
दुनिया के झगड़े से अग रहना और अपना थोड़ा सा व़क्त
बिना डर के गुजार लेना
हिंसा के बिना भी निभा लेना
बुराई का जवाब भलाई से देना
अपने अरमान पूरा न करना, बल्कि उन्हें भू जाना
ये समङो जाते ज्ञानी के तौर-तरीके।
यह सब मुझसे नहीं होता :
सचमुच, मैं एक अँधेरे व़क्त में जीता हूँ!
2. शहरों में मैं आया अराजकता के दौर में
जब वहाँ भूख का राज था।
इंसानों के बीच मैं आया बगावत के दौर में
और उनके गुस्से में शरीक हुआ।
ऐसे ही बीता मेरा व़क्त
जो मुङो इस धरती पर मिा हुआ था।
जंगों के बीच मुङो रोटी नसीब हुई
क़ातिों के बीच मुङो डाने पड़े बिस्तर
प्यार के साथ पेश आया मैं ापरवाही से
और क़ुदरत को देखा तो बिना सब्र के।
ऐसे ही बीता मेरा व़क्त
जो मुङो इस धरती पर मिला हुआ था।
मेरे व़क्त में सड़कें द तक जाती थीं
जुबान ने मेरा भेद खोा जल्लादों के सामने
शायद ही कुछ कर पाया मैं। पर हुक्मरानों को
राहत मिती है मेरे बिना, ये उम्मीद तो थी।
ऐसे ही बीता मेरा व़क्त
जो मुङो इस धरती पर मिा हुआ था।
ताक़त नाकाफ़ ी थी। मंजि़
दूर कहीं दूर थी।
साफ़ -साफ़ दिखती थी, हााँकि शायद ही
मेरी पहुँच के अंदर थी। ऐसे ही बीता मेरा व़क्त
जो मुङो इस धरती पर मिा हुआ था।
3. तुम, कभी तुम जब उस ज्वार से उबरोगे
जिसमें हम डूब गए
याद करना
जब तुम हमारी कमज़ोरियों की बात करो
उस अँधेरे व़क्त की भी
जिससे हम बचे रहे।
हमें तो गुज़रना पड़ा, जूतों की तुना में कहीं ज्यादा
मुल्क बदते हुए वर्गों के
बीच युद्धों से होकर, लाचार
जब वहां सिफ अन्याय हुआ करता था, पर गुस्सा नहीं।
हालाकि हमें पता तो है :
कमीनेपन से नफ़रत से भी
चेहरा तन जाता है।
नाइंसाफ़ की के ख़िलाफ़ गुस्से से भी
आवाज़ भर्रा सी जाती है। हाय रे हम
हम, जो ज़मीन तैयार करना चाहते थे बंधुत्व के लि
बंधु तो हम नहीं बन सके।
पर तुम, जब वो व़क्त आए
कि इंसान इंसान का मददगार हो
याद करना हमें
कुछ समझदारी के साथ।
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Source – KalpatruExpress News Papper







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