सोमवार, 16 जून 2014

अनमोल से मोलकी होतीं महिलाएं



कुछ भारतीय महिलाओं को अब नए संबोधनों से अलंकृत किया जा रहा है। हरियाणा, पंजाब और 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में इन्हें पारो एवं मोलकी कहा जाता है। यह ऐसी महिलाएं हैं,
जिन्हें गरीबी से ग्रसित असम, पश्चिम बंगाल या ओडिशा जैसे राज्यों से खरीदकर लाया जाता है। 
अक्सर इन्हें शादी के बहाने या घरेलू कामगार के रूप में 5000 रुपये से भी कम में खरीदा जाता है,
जो कि किसी पालतू पशु के दाम से भी कई गुना कम है। स्त्री-पुरुष लिंग अनुपात की कमी से जूझ 
रहे इन क्षेत्रों में पारो नाम संभवत: शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास की एक नायिका पारो 
से प्रेरित प्रतीत होता है, जो नायक की विवाहिता नहीं है। वहीं, मोलकी संबोधन से ही जाहिर है कि 
वह मोल ली हुई यानी खरीदी हुई है।
चिन्मय मिश्र एक प्रसिद्ध अंग्रेजी समाचार पत्र के अनुसार गैर सरकारी संगठन दृष्टि स्त्री अध्ययन 
प्रबोधन केंद्र के जमीनी सर्वेक्षण से सामने आया है कि हरियाणा के मेवात क्षेत्र में (राष्ट्र की 
राजधानी नई दिल्ली से महज 2 घंटे की दूरी पर) 10,000 परिवारों के सर्वेक्षण में पाया गया कि 
 यहां 9000 विवाहित स्त्रियों को दूसरे प्रदेशों से लाया गया है। यह एक किस्म की आधुनिक गुलामी 
है, जिसमें महिलाओं को कई बार बेचा जाता है। इस क्षेत्र में महिला- पुरुष अनुपात 1000 पर 879
रह गया है। इसके बावजूद इसे लेकर किसी तरह की कोई जागरूकता नहीं है, क्योंकि दूसरे प्रदेशों में 
3,000 रुपये तक में लड़कियां मिल जाती हैं। इस धंधे के सौदागर कहते हैं कि कोलकाता और 
असम में थोक में लड़कियां मिल जाती हैं।
भारतीय गरीब महिलाओं की स्थिति विदेशों में भी अच्छी नहीं है। मध्य एशिया में सऊदी अरब व 
 खाड़ी के अन्य देशों में घरेलू कामगार के रूप में गई महिलाएं भी अत्याचार का शिकार हो रही हैं।
वहां पहुंचते ही उनके पासपोर्ट एवं अन्य कागजात जब्त कर लिए जाते हैं और फिर उन्हें अंतहीन 
 यातना का शिकार होना पड़ता है। हर दिन 15 से 18 घंटों तक उनसे लगातार कार्य कराया जाता 
है।
यही नहीं, उनका यौन शोषण भी किया जाता है।
अपने परिवार के लिए समृद्धि का रास्ता ढूंढने निकली ऐसी अधिकांश महिलाएं खाली हाथ लौटती हैं 
 और कई बार तो वे जिंदा भी नहीं लौटतीं।
सऊदी अरब व खाड़ी के अन्य देशों की सामंती प्रवृत्ति से हम सब अच्छी तरह वाकिफ हैं। ऐसा 
नहीं है कि उनकी यह प्रवृत्ति हमें आज ही मालूम पड़ी हो, तकरीबन 40 वर्ष पूर्व सन 1976 में 
नागाजरुन ने लिखा था,
आए दिन अरब-अंचलों के तेली धन कुबेरों को दिन रात आती रहती हैं डॉलरों की अपच से खट्टी 
 डकारें
पिछले चार दशकों में खाड़ी के देशों में सामंतवादी प्रवृत्तियां और अधिक मजबूत हुई हैं। इसकी 
वजह पूरे विश्व में बढ़ती असमानता है। इस असमानता की सर्वाधिक शिकार अंतत: महिलाएं ही 
होती हैं।
वहीं, दूसरी तरफ भारत या हमारे पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश व श्रीलंका की सरकारों को भी खाड़ी 
के देशों से आने वाली विदेशी मुद्रा की ही चिंता रहती है। वहां उनके नागरिकों के साथ क्या व्यवहार 
होता है, उसे लेकर वे आंखें मूंदे रहती हैं।
यूरोप और अमेरिका अधिकांश भारतीयों को स्वर्ग के समान प्रतीत होते हैं। इसकी वजह यह भी है 
 कि हममें से अधिकतर ने दोनों को ही नहीं देखा है। अमेरिका में भारतीय राजनयिक देवयानी 
खोबरागड़े द्वारा अपनी भारतीय घरेलू कामगार के साथ किए गए कथित र्दुव्‍यवहार को लेकर उठा 
बवाल अभी पूरी तरह से ठंडा नहीं हुआ है। राख में दबी आग अभी भी भभककर लपट का रूप लेती 
रहती है। इस बीच ह्यूमन राइट्स वाच ने ब्रिटेन में एशियाई मूल की घरेलू कामगारों, जिसमें 
भारतीय महिलाएं भी शामिल हैं कि दारुण स्थिति पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है 
छुपा हुआ। ब्रिटेन में पलायन कर आए श्रमिकों से र्दुव्‍यवहार इसमें सामने आया है। यहां भी आते 
ही उनके पासपोर्ट एवं अन्य दस्तावेज जब्त कर लिए जाते हैं, उन्हें घरों में बंद करके रखा जाता है,
शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना दी जाती है, जरूरत से ज्यादा काम के घंटे नियत हैं। साप्ताहिक छुट्टी 
नहीं मिलती, बहुत कम मजदूरी और कई मामलों में तो मजदूरी ही नहीं मिलती। इन्हीं वजहों से ये 
लोग मदद भी नहीं मांग पाते। वहां काम कर रही एक घरेलू कामगार अनीता एल. को उद्धत करते 
हुए रिपोर्ट में कहा गया है, वह सुबह 6 बजे से रात को 11 बजे तक और कई बार 11:30 बजे तक 
कार्य करती है। इस दौरान बीच में उसे कोई अवकाश नहीं मिलता, न ही साप्ताहिक छुट्टी मिलती है। 
उसे अकेले भी नहीं रहने दिया जाता और बच्चों वाले कमरे में ही सोना पड़ता है। उससे कहा गया 
 था कि उसके खाते में पैसे डाल दिए जाएंगे लेकिन, वह भी नहीं किया गया। उसे महीने में केवल 
एक बार भारत में अपने घर पर बात करने की इजाजत है। इतना ही नहीं, उसे मोबाइल रखने तक
 की अनुमति नहीं है।
इस तरह की घटनाओं को हम व्यक्तिगत आचरण की श्रेणी में डालकर कई बार हो रहे अत्याचारों 
से आंख चुरा लेते हैं। विश्व के इस सबसे पुराने लोकतंत्र और मानवाधिकार के पुरोधा कहलाने वाले 
देश ने अपनी संसद, गैर सरकारी संगठनों एवं संयुक्त राष्ट्र संघ विशेषज्ञों की अनुशंसाओं के विरुद्ध 
जाकर अप्रैल 2012 में ब्रिटेन में बाहर से आए घरेलू कामगारों के अधिकार समाप्त करते हुए 
प्रावधान कर दिया कि ब्रिटेन में आने के बाद घरेलू कामगार अपना नियोक्ता नहीं बदल सकते। इस 
नए कसे हुए वीसाके अंतर्गत विदेशी घरेलू कामगार कोई नया काम नहीं ढूंढ सकते। यानी वे जिस 
फंदे में फंस गए हैं, उससे निकलना अब नामुमकिन हो गया है।
उपरोक्त तीनों उदाहरण हमारे सामने भारतीय गरीब व वंचित महिलाओं की स्थितियों को सामने ला 
रहे हैं। अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों में महिलाओं की खरीद-फरोख्त न तो उन राज्यों में 
चुनावी मुद्दा है जहां पर इनका शोषण हो रहा है और न ही उन राज्यों में जहां से इन महिलाओं/ 
लड़कियों को खरीदा जा रहा है। इन महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की कहानियां रोंगटे खड़े कर 
देती हैं। आम चुनाव का सारा ताना- बाना सत्ता को हथियाने के इर्द गिर्द सिमटता जा रहा है। यदि 
थोड़ी बहुत बात आम आदमी की होती है तो वह भी उसके आर्थिक उत्थान पर आकर सिमट जाती 
है। सामाजिक समानता का मूल विचार हमारे समाज के विमर्श से कमोवेश गायब हो गया है।
वहीं, दूसरी तरफ महिलाओं के मुद्दे तो जैसे भारतीय समाज के भी विमर्श से नदारद से हो गए हैं। 
फिल्मों, टेलीविजन व विज्ञापनों के बाद अब इंटरनेट का बड़ा हिस्सा महिला शोषण को बढ़ावा देने में 
जुट गया है। भारतीय महिलाएं न अपने देश में और न ही परदेश में सम्मानजनक जीवन जी पा 
रही हैं। हमारी केंद्र व राज्य सरकारें भी इन विषमताओं को लेकर आंख मूंदे हुए हैं और विपक्ष भी 
बजाए सामाजिक परिवर्तन की और कदम बढ़ाने के स्वयं को सत्ता परिवर्तन तक सीमित रखे हुए 
 हैं। आज से दो हजार वर्ष पूर्व लिखे गए ग्रीक नाटक वूमन ऑफ ट्राय में युद्ध का सारा आक्रोश 
ट्राय की महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है और उन्हें गुलाम बनाकर विजयी राष्ट्र अपने साथ ले 
जाता है। आज स्थिति में थोड़ा सा फर्क है। लेकिन, बहुतायत शिकार तो महिलाएं ही हो रही हैं। 
 फिर वह स्थान भारत की राजधानी दिल्ली, सऊदी अरब या विकसित एवं तथाकथित अग्रणी राष्ट्र 
ब्रिटेन, कोई भी हो सकता है। वहीं, हमारी वर्तमान व्यवस्था व मानसिकता शायद इस स्थिति में 
रिवर्तन को राजी नहीं है क्योंकि उसकी निगाह में धन के अलावा सब कुछ गौण है, आत्मसम्मान 
 भी।
इस व्यवस्था की सीमा को वीरां की ये पंक्तियां ठीक ही बयान करती हैं..
यह काठ का घोड़ा ट्राय की हेलन को मुक्त कराने वाला नहीं है।
उस औरत की रहस्यमयी चुप्पी और पथरीले चेहरे के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं है। 
 दरअसल वह बंद दरवाजा है दस्तक के बाद भी नहीं खुलता।
- स्वप्निल श्रीवास्तव
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Source – KalpatruExpress News Papper








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