सोमवार, 16 जून 2014

अनुशासन से दूर होगी हिंदी की दरिद्रता



अस्मितावादी विमर्शो में आपकी रुचि रही है। बाजार व इन विमर्श के बीच आप किस तरह का रिश्ता देखते हैं?
 मुङो इसमें संदेह है, कि मेरी ऐसी कोई रेखांकित की जाने लायक रुचि रही है। हां, समानता की, सामाजिक न्याय की, समान अधिकारों और अवसरों की लड़ाई में मेरी रुचि अवश्य है। मुङो लगता है, अस्मितावाद और विमर्श ये दोनों शब्द अलग-अलग अनुपात में मेरी इस रुचि को संकरा दिखाते हैं।
दलितों, स्त्रियों या आदिवासियों की लड़ाई उन अन्यायों और भेदभावों के खिलाफ है जो उनके दलित, स्त्री या आदिवासी होने की वजह से उनके साथ बरते जाते रहे हैं। हम कह सकते हैं कि मुक्ति की लड़ाई को अधिक समावेशी बनाने का काम करती हैं ये लड़ाइयां और कई अचिह्न्ति रह जाने वाले अन्यायों और भेदभावों को मुक्ति की लड़ाई की कार्यसूची पर ले आती हैं। कई बार दलितों, स्त्रियों या आदिवासियों के संघर्ष के सिद्धांतकार-नेता-भागीदार मुक्ति की लड़ाई को अधिक समावेशी बनाने के कार्यभार से उलट स्वयं अस्मितावाद में फंस कर रह जाते हैं और तब मुङो लगता है कि वे खुद अपने संघर्ष के मायने और अहमियत को कम कर रहे हैं। अहमियत तो मेरी नजर में फिर भी रहती है, पर कमतर और संकीर्ण।
अब मुख्य सवाल पर आएं। आपने जिस तरह से पूछा है, उसमें बाजार शब्द मुनाफे की इकलौती मंशा से चालित तंत्र के मेटाफर के तौर पर मौजूद है। कह सकता हूं कि दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों आदि की लड़ाई अगर अस्मितावादी विमर्श के घटाववाद का शिकार होती है तो बाजार के लिए यह स्थिति मुफीद है, क्योंकि तब आर्थिक संबंधों, संपत्ति संबंधों, उत्पादन संबंधों के चरित्र और स्वरूप पर सवाल नहीं उठाया जाता, उन्हें बदल डालने की जरूरत रेखांकित नहीं होती, बल्कि उन संबंधों के बरकरार रहते हुए उनके अलग-अलग सिरों पर कौन कैसे और कितना काबिज होगा, इसका सवाल भर उठाया जाता है। मुङो लगता है, मुनाफाखोर तंत्र के लिए यह स्थिति निश्चित रूप से बेहतर है कि मुक्ति की साझ लड़ाई के हिस्से के रूप में दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों की लड़ाई न चले और अस्मितावादी विमर्श उसका एक लोकप्रिय स्वीकार्य विकल्प बन जाए।
ऑर्गेनिक इंटेलेुअल की बात होती रही है। साहित्य के स्वरूप, अंतर्वस्तु और उसके सरोकारों के लिहाज से यह कितना जरूरी लगता है? मुक्तिबोध के साहित्य में यह एक जरूरी प्रश्न के रूप में आता है लेकिन, यह परंपरा क्षीण होती दिख रही है। इसके क्या कारण हो सकते हैं?
बुद्धिजीवी किसी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के पक्ष या विरोध में होता है और इस तरह किसी वर्ग, समूह, तबके के हितों के साथ उसका कर्म अंगागि भाव से जुड़ा होता है।
इसलिए वह ऑर्गेनिक इंटेलेुअल होता है। जो बुद्धिजीवी इस तरह के किसी लगाव से परे शुद्ध विचार की दुनिया में होने का प्रयास या दावा करते हैं, उन्हें ग्राम्शी ऑर्गेनिक इंटेलेुअल से उलट पारंपरिक बुद्धिजीवी मानता है और उनके बौद्धिक कर्म को यथास्थिति का पोषक बताता हैं। ग्राम्शी के लिए इस बात का बड़ा महत्व है कि जो वंचित तबके हैं, वे अपने जैविक बुद्धिजीवी उत्पन्न करें, क्योंकि वही एक वैकल्पिक व्यवस्था की वैधता को मनवाने वाला बौद्धिक कर्म संपन्न कर सकता है और वहां से व्यवस्था-परिवर्तन का आगाज होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह धारणा बहुत ही महत्वपूर्ण है, साहित्य के सरोकारों और उसकी अंतर्वस्तु के खयाल से। मुक्तिबोध ने ऑर्गेनिक इंटेलेुअल पद का कोई इस्तेमाल चाहे न किया हो लेकिन, यह धारणा उनके यहां बहुत प्रखर रूप में है। वर्गीय तरफदारी की यह परंपरा हिंदी में उनके बाद क्षीण हुई हो, ऐसा मुङो नहीं लगता। बहुत बड़े पैमाने पर ऐसा साहित्य रचा गया है जो मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की, वंचित वर्गों के अवस्थिति-बिंदु से, आलोचना करता है और आपके अंदर इसे बदल डालने का असंतोष भरता है। वर्ग जैसी श्रेणी, जिसमें संक्रमण संभव है यानी सदस्यता का परिवर्तन संभव है, उसे छोड़ कर अगर जाति, लिंग आदि असंक्रमणशील श्रेणियों के बारे में सोचें तो वहां तो समूहसदस् यता वाले जैविक बुद्धिजीवी भी बड़ी संख्या में साहित्य की दुनिया में आए हैं। लिखने वाले दलित, स्त्रियां, आदिवासी इसके उदाहरण हैं। इस लिहाज से भी मुङो यह कहना सही नहीं लगता कि यह परंपरा क्षीण होती दिख रही है।
नयी पीढ़ी के साहित्य में किस तरह का प्रतिरोध दिख रहा है? सामाजिक और सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का सवाल कितना प्रासंगिक रह गया है?
 साहित्य का प्रतिरोध सिर्फ इस चीज से नहीं बनता कि रचनाकार समाज में मौजूद या अपने द्वारा कल्पित कितने तरह के प्रतिरोध की छवियां दर्ज कर रहा है। नयी पीढ़ी के साहित्य में आपको इसी तरह का प्रतिरोध अधिक मिलेगा। उसका बहुत बड़ा हिस्सा बाहर मौजूद किसी प्रतिरोध को रिकॉर्ड करने के लिए नहीं, स्वयं प्रतिरोध करने के लिए लिखा गया है। प्रेम जैसे निहायत निजी मसले को लेकर लिखी गई रचनाओं को भी मैं इससे बाहर नहीं मानता, क्योंकि खाप पंचायतों और वैलेंटाइन डे पर अपना घटियापन प्रदर्शित करनेवाली रामसेनाओं के समय में प्रेम, संबंधगत दकियानूसी से लड़ने वाला सबसे बड़ा मूल्य नजर आता है। अगर प्रेम को लिखना संबंधगत दकियानूसी के खिलाफ लिखना है तो वह प्रतिबद्ध साहित्य क्यों नहीं है? मैं सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के सवाल को इस रूप में देखने के हक में हूं। स्पष्ट रूप से स्वयं को मार्क्‍सवादी कहनेवाले अब शायद बहुत अधिक न रह गये हों, पर मुनाफे की इकलौती मंशा से चालित तंत्र के प्रति आलोचनात्मक रुख बड़े पैमाने पर है और यह अपने तरह से उसी प्रतिबद्धता का भिन्न संस्करण है।
कहा जाता है कि हिंदी में मौलिक ज्ञान-निर्माण का अभाव है। अंतरानुशासनिकता को इसके लिए कितना उपयोगी मानते हैं आप?
अंतरानुशासनिकता की बात तो तब आए, जब भिन्न िभन्न अनुशासन हों। हिंदी में किसी भी समाज वैज्ञानिक या वैज्ञानिक अनुशासन की चीज है ही कहां? हिंदी का मतलब हो गया है हिंदी साहित्य। हिंदी में लिखने वाले इतिहासकार और समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक और राजनीतिशास्त्री और नृतत्वशास्त्री और दार्शनिक/दर्शनशास्त्री और वैज्ञानिक कहां हैं? तो ले-देकर जो साहित्य वाले हैं, उन्हीं पर भार है कि हर अनुशासन को ध्यान में रख कर हिंदी की दरिद्रता को दूर करने का भरसक प्रय} करें। मौलिक ज्ञान-निर्माण के लिए पहले तो जरूरी है कि हिंदी में ये सारे अनुशासन कुछ हद तक मौजूद हों, तब जाकर उनकी अंतरक्रिया से नई दृष्टियों के उन्मेष की गुंजाइश बने। इन अनुशासनों की मौजूदगी के बगैर अंतरानुशासनिकता की बात कहने का मतलब है कि हम निहित रूप में अंग्रेजी-दक्षता की बात कर रहे हैं, क्योंकि उसके बिना अन्य अनुशासनों में पैठ बन ही नहीं सकती।
हिंदी आलोचना को दो दृष्टियों - दलित और स्त्री ने बहुत प्रभावित किया है। इस लिहाज से तथाकथित मुख्यधारा की आलोचना को किस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है?
मुख्यधारा शायद अभी तक चैंकी हुई है, इसीलिए शुभकामना के शब्दों के अलावा कोई गंभीर एनगेजमेंट स्त्री- प्रश्न और दलित-प्रश्न के साथ वहां दिखाई नहीं देता। दिक्क़त यह भी है कि इन प्रश्नों की रोशनी में पीछे का अपना, और अपने अनुकरणीय आलोचकों-रचनाकारों का बहुत सारा लिखा समस्याग्रस्त नजर आने लगता है, जबकि एक झटके में अपने को उससे तोड़ पाना मुश्किल है। आप ही बताइए कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ और रामविलास जी द्वारा गढ़ी गई उनकी प्रतिमा के साथ जिनका गहरा जुड़ाव रहा है, वे कैसे एकाएक उनके प्रति आलोचनात्मक हो सकते हैं! या अलग तरह से कहूं तो वै कैसे उस जगह पर बिना किसी असुविधा के खड़े हो सकते हैं जहां से इनमें गहरी फांकें नजर आती हैं!
चुप्पी मुङो फिर भी ठीक लगती है, बनिस्बत उस शोर के जो दलित और स्त्री प्रश्न को सिरे से खारिज करने, पुनमरूल्यांकनों और पुनपाठरें पर हास्यास्पद तर्कों से वार करने के लिए उठता है। इसका मतलब यह नहीं कि हर पुनमरूल्यांकन दुरुस्त ही होता है, पर उसके बहाने पुनमरूल्यांकन की जरूरत और उसके पीछे की प्रतिज्ञाओं को पूरी तरह खारिज करने का उन्मादी बरताव मुङो तलवार लेकर पवनचक्कियों का सामना करते दोन किहोते की याद दिलाता है।
चर्चित कथाकार संजीव से डॉ धर्मराज और प्रदीप राजपूत की बातचीत
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Source – KalpatruExpress News Papper

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