रविवार, 15 जून 2014

अकबर जहांगीर का पिता-पुत्र प्रेम



पिता और पुत्र के बीच वात्सल्य जैसे रस ही नहीं बहते, एक और रसायन वहां स्नवित होने लगता है। वह होता है अहं का कटुरस। हालांकि, सम्बंधी होने से यह अहं बढ़कर अहंकार या दंभ में परिवर्तित नहीं होता, परंतु वे एक-दूसरे में प्रतिस्पर्धी को देखने लगते हैं।
यह कटुता अक्सर जीवन के आगे बढ़ने के साथ समाप्त हो जाती है। लेकिन अक्सर समय हमें गलतियों का एहसास भी करा देता है। अकबर और उनके पुत्र जहांगीर के बारे में एक प्रसंग की चर्चा यहां की जानी चाहिए।
जहांगीर जिन्हें सलीम के नाम से जाना जाता था, अकबर के प्रति विद्रोही हो गए थे। वह आगरा पर अधिकार चाहते थे। इलाहाबाद जाकर उन्होंने अपने को सम्राट घोषित कर दिया और अपने नाम के सोने-चांदी के सिक्के चला दिए। अकबर ने उनसे मिलना चाहा तो सलीम ने कहा- इस शर्त पर मिलेंगे कि साथ में सलीम की सत्तर हजार की सेना भी हो। अकबर ने इस शर्त से इनकार कर दिया। बाद में किसी वक्त सलीम अकबर के दरबार में आये तो अकबर ने व्यंग्य किया कि तुम्हारे पास सत्तर हजार की सेना भी थी तो तुम अकेले क्यों आए? फिर उन्होंने सलीम के प्रति वात्सल्य दिखाया, मगर सलीम दंडवत करने को हुए तो थप्पड़ लगा दिया। अकबर की मृत्यु के बहुत बाद लिखी अपनी आत्मकथा में जहांगीर ने अकबर की बेहद तारीफ की। जहांगीर ने लिखा, अपनी चाल-ढाल में अब्बा साधारण नहीं जान पड़ते थे, ऐसा लगता था कि खुदा का नूर ही सामने है। यही नहीं, रोजमर्रा के जीवन में भी जहांगीर अकबर को अक्सर याद करते थे। इतिहासकार लिखते हैं, एक बार जहांगीर के पास काबुल से अनार और बदख्शां से खरबूज आए। उन्हें खाते हुए जहांगीर ने पिता को याद किया उन्हें फलों का बहुत शौक था। ऐसे फल देखकर वे कितने खुश होते?
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Source – KalpatruExpress News Papper

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