शुक्रवार, 27 जून 2014

मंजिल मेरे पग चूमेगी आज नहीं तो कल..



कभी लेखनी ने उन्हें अबला कहा तो कभी समाज ने बोझ। घर से बाहर तक अनगिनत चुनौतियां 
रहीं, लेकिन यह औरत का साहस ही है कि वह थकी नहीं, हारी नहीं। आज भी वह उसी ऊर्जा से 
निरंतर चलती जा रही है क्योंकि उसे लंबा सफर जो तय करना है। सशक्त होने से लेकर मुश्किलों 
तक की अभ्यस्त होने तक जाने कितने पड़ाव औरत की मर्यादा और पहचान को और भी ताकत 
देते रहे हैं। आज वह देश की तरक्की के मायने बनकर उभरी है। वह जूझ रही है अपनी अस्मिता 
की सार्थकता और ताकत की स्वीकार्यता के लिए और उसे भरोसा है खुद पर कि एक दिन मंजिल 
जरूर मिलेगी। स्मिता सिंह की रिपोर्ट:
सामाजिक जीवन में लड़कियां हर जगह भोग्या की दृष्टि से देखे जाने के लिए जन्मों से बेबस थीं,
लेकिन अपने पांवों पर खड़े होने के आत्मविश्वास ने आज लोगों को अपनी गलत निगाहें झुकाने पर 
मजबूर किया है। वह जिंदगी की हर मुश्किल को स्वयं के कंधों पर ढोने के लिए घर से बाहर 
निकल आई है और यकीन मानिए उसे अपने इरादों और मेहनत करने की लगन पर पूरा भरोसा है। 
लेकिन, क्या सच में वे अबला कहलाने वाली लड़कियां हर फिक्र को मजाक में उड़ाने लायक सबला
 बन गई हैं या सिर्फ वे एक और ढोंग के पर्दे में अपने को ढांप लेती हैं। क्या वास्तव में नौकरीपेशा
 बनते ही उनकी परेशानियां खत्म हो जाती हैं या होती है मुश्किलों की एक नई शुरुआत. शहर के 
एक मल्टीप्लेक्स में काम करने वाली प्रतिभा मिश्रा सुबह 7 बजे तक हर हाल में ऑफिस पहुंच जाती हैं और शाम 7 बजे तक काम में व्यस्त रहती हैं। उनका काम लोगों का सामान और टिकट चेक करने का है,
जिसकी वजह से लगातार कई घंटे उन्हें खड़े भी रहना पड़ता है। प्रतिभा कहती हैं कि घर और बाहर 
में बहुत मुश्किल से तालमेल बना पाती हूं।
लेकिन, यहां काम का दबाव ज्यादा है और पैसे भी ज्यादा नहीं मिलते, इस वजह से उन्हें अक्सर 
आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साथ ही सहकर्मियों से मिलने वाले ताने उन्हें बहुत 
परेशान करते हैं। फिर भी वह खुश हैं इस बात में कि उनकी अपनी जॉब है।
दिव्या गौड़ दो साल से नौकरी की तलाश कर रही थीं और जब नौकरी मिली तो एक शोरूम में बिल 
बनाने की। यह नौकरी उनके लिए इस लिहाज से अच्छी थी कि पूरे समय चहल-पहल बनी रहती 
थी, जिससे उसका मन लगा रहता था। वह खुश थी कि कुछ नहीं से तो बेहतर ही है यह नौकरी 
करना। आखिर अब घर में उसे ज्यादा सम्मान मिलने लगा है, यही नहीं अपने कमाए गये पैसों से 
वह अपना पूरा खर्च भी निकाल लेती है, साथ ही परिवार का भी कभी-कभी सहयोग कर देती है। 
लेकिन, आने-जाने वाला हर ग्राहक उसे शोरूम में रखी वस्तु की तरह जब उसे देखता है तो वह 
अंदर तक सिहर जाती है। फिर भी वह काम नहीं छोड़ती, आखिर दूसरों की सोच के आगे वह घुटने 
क्यों
 टेक दे? यह भाव उसमें जूझते रहने का आत्मविश्वास पैदा करता है।
माला एक मॉल में कॉस्मेटिक्स सेक्शन में काम करती हैं और उन्हें रोज पूरे दिन वहीं पर टहलते 
 हुए गुजारना पड़ता है। वह कहती हैं कि काम से ज्यादा लोगों का व्यवहार भारी पड़ता है। शाम को 
आती हूं तो बहुत तनाव में रहती हूं। कई बार सोचती हूं कि ऐसी नौकरी क्यों करनी जिसका लोग 
मजाक भी बनाते हैं और पैसे इतने कम पाती हूं। फिर लगता है कि मेरे जैसी कितनी ही लड़कियां 
इस काम में हैं तो मैं क्यों न करूं, गलती मेरी या मेरे काम में नहीं है, गलती लोगों की सोच में है 
और उम्मीद है मुङो कि कभी तो सबकी सोच बदलेगी। जब लोग लड़कियों का आंकलन न तो 
उनकी नौकरी से करेंगे और न ही बाहर काम करने और कम सैलरी पाने से। बल्कि एक समय 
ऐसा जरूर आएगा जब लोग हमें हमारे काम से पहचानेंगे।
एक अन्य सुपर बाजार में तकरीबन तीन सालों से सौंदर्य प्रसाधन बेचने में जुटी हुई नेहा भूल चुकी 
हैं कि उनमें और अन्य साथी पुरुष कर्मचारियों में क्या फर्क है? वह अपने आप को साथी पुरुष 
कर्मचारियों से बचाने का बेवजह प्रयास नहीं करतीं। साथ ही वह संवेदनशील मुद्दों पर रिजर्व भी है,
जिससे उनके साथी उसके खुलेपन को अन्यथा न ले लें। उनका कहना है कि अपने व्यवहार को 
संतुलित रखो और सब कुछ ठीक-ठाक ही चलेगा। हां, उसे वे ग्राहक सख्त नापसंद हैं जो सामान 
उठाने व निकालने की आड़ में स्पर्श के बहाने ढूंढते हैं। लेकिन क्या किया जा सकता है, दुनिया ऐसी 
ही है और जिंदगी भी और हारने से नहीं लड़कर ही कुछ हासिल किया जा सकता है।
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Source – KalpatruExpress News Papper








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