रविवार, 1 जून 2014

टिकाऊ कृषि के लिए जरूरी जलवायु प्रतिस्कंदी तकनीकें


हरिशंकर गुप्त भूमि गुणवत्ता में गिरावट, उपज में ठहराव, प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता में कमी जैसे घटक खेती के लिए अभिशाप बन रहे हैं। वर्ष 2020 से 2050 तक क्रमश: 14 एवं 16 विलियन जनसंख्या के लिए खाद्य एवं पोषण प्रदान करना चुनौती बना हुआ है । खेती का 80 प्रतिशत हिस्सा एक से दो हेक्टेयर जमीन वाले किसानों के हाथ है।
जलवायु परिवर्तन जैसे घटक खेती के टिकाऊपन के लिए खतरा बन रहे हैं।
भारत की दो-तिहाई जमीन बारानी है। देश के पूर्वी भाग में बाढ़, उत्तर पश्चिमी भाग में पाला एवं मध्य एवं उत्तरी भाग में गर्म लू व पूर्वी तटीय क्षेत्र में चक्रवात जैसी समस्याएं खेती के लिए जोखिमपूर्ण बनी रहती हैं।
महसूस किए गए प्रभाव-
 भारत में चरम जलवायु अधिकता के कई प्रभाव देखने को मिले हैं। यह सीधे तौर पर खेती को प्रभावित करते हैं। इनमें बरसात मुख्य है। साल 2002, 2004, 2006, 2009, 2010 एवं 2012 में सूखा रहा। 2005, 2006, 2008, 2010 एवं 2013 में बाढ़ की विभीषिका दिखी।
इसके अलावा अन्य राज्यों में भी कई तरह के प्रभावों ने कृषि को बुरी तरह से प्रभावित किया। वर्ष 2002 में जुलाई माह में मानसून पूरी तरह से असफल होने के कारण सूखे की स्थिति थी जबकि सम्पूर्ण देश के लिए सम्यक वर्षा सामान्य से 51 प्रतिशत कम थी। चावल, गेहूं, मोटे अनाज, दलहन, तिलहन के उत्पादन में पिछले साल के 94 मिलियन टन उत्पादन की तुलना में इस वर्ष 18 मिलियन टन उपज की कमी के कारण कुल 76 मिलियन टन उत्पादन हुआ है। चारा तथा पानी की कमी के कारण करीब 150 मिलियन पशु प्रभावित हुए हैं। राजस्थान में 22 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन घटा है। कई अन्य राज्यों में भी प्रभाव होने लगा है।
सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी में कृषि की भागीदारी 3.1 प्रतिशत कम हुई है। मौसम की मार से राजस्थान में पूर्व में जीरा व सरसों की फसल में भारी नुकसान हुआ वहीं हिमाचल में सेब के बागानों को मौसमी परिवर्तन के चलते स्थानांतरित किया गया है।
विश्व स्तर पर किए गए अध्ययनों से पता चला है कि वर्ष 2080 से 2100 तक तापमान में इजाफे के कारण भारत में फसल उत्पादन पर 10 से 40 प्रतिशत तक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। तापमान का असर केवल खेती पर ही नहीं वल्कि पशुपालन, पोल्ट्री एवं मत्स्य पालन आदि क्षेत्रों पर भी बुरा असर डालेगा।
जलवायु के लिए तैयार किस्में-
 उच्च उत्पादन क्षमता एवं अनेक तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने वाली किस्में वैज्ञानिक तैयार कर रहे हैं। इनमें कम पानी, ज्यादा पानी, लवणीय भूमि, क्षरीय भूमि के लिए भी अच्छी किस्में संस्थानों में विकसित हो चुकी हैं। ताप सहनशील किस्में भी आने लगी हैं लेकिन इस दिशा में काम और तेज करना होगा। इसके अलावा जरूरी जल जैसे प्राकृतिक संसाधन का सही उपयोग करना होगा। जल संचय को भी बढ़ाना होगा। इसके अलावा फसलों के लगाने के समय में भी मौसम की प्रतिकूलता के अनुसार बदलवा करना होगा। उन्हें थोड़ा अगेती या पछेती करके बोना शुरू करना होगा ताकि कल्ले बनने व बीज बनने की अवस्था में मौसम का कमसे कम बुरा असर हो। इसके अलावा फसल चक्र में बदलाव बेहद जरूरी है। इन्हें मक्का-गेहूं, दलहन-गेहूं, मक्का-दलहन, तिलहन-गेहूं और सीधी बिजाई जैसे तरीकों से बदलकर देखना होगा।
(लेखक पूसा संस्थान नई दिल्ली के निदेशक हैं)
इतना ही नहीं समेकित खेती, फसल विविधीकरण, समेकितनाशीजीव प्रबन्धन, फसल बीमा, संरक्षित कृषि, मौसम आधारित उन्नत कृषि परामर्शा का उपयोग, उन्नत पोषण तत्व प्रबन्धन, किसानों की पारम्परिक तकनीकों का उपयोग आदि सभी तरीकों को अपनाना महती आवश्यकता होगी।
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Source – KalpatruExpress News Papper

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