गुरुवार, 17 जुलाई 2014

ज्ञान का सीधा संबंध आंतरिक परिवर्तन से है



यह दुर्भाग्य की बात है कि आजकल अक्षरज्ञान और भाषाज्ञान को ही लोग सच्चा ज्ञान मानने लगे हैं, जबकि इस प्रकार का ज्ञान मनुष्य का बाहरी आवरण है।
सच्चा ज्ञान हमारे आंतरिक गुणों, प्रेम, करुणा और दया की भांति मौलिकता से पूर्ण है, न कि रंग-बिरंगे परिधानों की भांति, जो केवल बाहरी आडंबर को बढ़ाने में सहायक हैं। किसी व्यक्ति के अंदर जब इन सभी मौलिक गुणों का विकास होने लगे, तब हमें मान लेना चाहिए कि उसे सच्चा ज्ञान मिल गया। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि सच्चे ज्ञान के माध्यम से हम में आचार-विचार, लोक-मर्यादा और सकारात्मक चिंतन पद्धति का विकास होता है।
यह व्यवहार में दिखाई पड़े कि अमुक व्यक्ति बड़ों का आदर-सम्मान करता है।
पारिवारिक मर्यादाओं को समझता है। समाज या राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों और कर्तव्य का ध्यान रखता है, तो समझना चाहिए कि वह व्यक्ति शिक्षित हो गया। उस व्यक्ति को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो गई।
स्पष्ट है ज्ञान का सीधा संबंध आंतरिक परिवर्तन से है।
सच्चा ज्ञान वह है जो काबिलियत पैदा कर सके, जीव को प्रकृति के समीप ला सके और इसे रागात्मक बना सके। हमें ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है, जो ठूंठ वृक्ष की तरह रसहीन और सौंदर्यविहीन न हो, बल्कि फलदार और सघन हो। जो प्रेम, दया, करुणा और आकर्षण पैदा कर सके। हमें उस ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए जो हमारे मौलिक गुणों में परिवर्तन लाए, उन्हें संस्कारित करे। यह तभी संभव है, जब आपकी शिक्षा को मात्र पुस्तकीय ज्ञान से नहीं, बल्कि जीवन से भी जोड़ा जाए। ज्ञान का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लेना ही न हो। इसके बजाय हमारे भीतर के अविवेक, अज्ञानता और मूढ़ता या जड़ता को समूल मिटा देने का प्रयास किया जाना चाहिए।
इसके लिए हमारे शिक्षाविदों, धर्मगुरुओं, संत- महात्माओं को आगे आना चाहिए। वे लोगों को कुछ ऐसा मार्ग बताएं जिसके सहारे आम व खास लोग अपने आप में सुधार ला सकें। उनके जीवन से अंधकार मिटे। यहां अंधकार का तात्पर्य उस अंधकार से है जो हमारे अंतर्मन में फैला
है। हमारे अंदर जो रूढ़ियां, वासनाएं, विकार हैं, वे ही हमारे भीतर के अंधकार हैं। हमारे अंतर्मन में जो शक्तियां हैं, हम उन्हें कैसे जाग्रत करें, कैसे प्रस्फुटित करें और कैसे आगे बढ़ाएं, सच्चे ज्ञान का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए।
सच्चा ज्ञान हमारे आंतरिक गुणों, प्रेम, करुणा और दया की भांति मौलिकता से पूर्ण है, न कि रंग-बिरंगे परिधानों की भांति, जो केवल बाहरी आडंबर को बढ़ाने में सहायक हैं। किसी व्यक्ति के अंदर जब इन सभी मौलिक गुणों का विकास होने लगे, तब हमें मान लेना चाहिए कि उसे सच्चा ज्ञान मिल गया।
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Source – KalpatruExpress News Papper






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