रविवार, 21 सितंबर 2014

Kartar Singh Sarabha Biography in Hindi

kartar singh sarabha
Kartar Singh Sarabha
भारत को स्वराज दिलवाने और अंग्रेजी शासन को समाप्त करने जैसे उद्देश्यों को पूरा करने के जिन क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उन निर्भय स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे करतार सिंह सराभा. जिन्होंने मात्र 19 वर्ष की उम्र में भारत के सम्मान की खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था. करतार सिंह सराभा का जन्म 1896 में लुधियाना, पंजाब के सराभा ग्राम के एक जाट सिख परिवार में हुआ था. करतार सिंह काफी छोटे थे तभी इनके पिता का निधन हो गया था. करतार सिंह का पालन-पोषण उनके दादा ने किया था. अपने गांव से प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने लुधियाना के मालवा खालसा हाई स्कूल में दाखिला लिया. दसवीं की परीक्षा पूरी करने के बाद करतार सिंह आगे की पढ़ाई के लिए अपने चाचा के पास उड़ीसा चले गए. पंद्रह वर्ष की आयु में करतार सिंह के अभिभावकों ने उन्हें काम करने के लिए अमरीका भेज दिया. 1912 में सैन फ्रांसिस्को पोत, अमरीका पहुंचने के बाद अप्रवासन अधिकारी ने भारतीय लोगों से बहुत बुरे लहजे में बात की लेकिन अन्य देशों के लोगों से वह सामान्य रहा. जब करतार सिंह ने अपने साथी से इसका कारण पूछा तो उन्हें यह बताया गया कि भारत एक गुलाम देश है और उनके दासों के साथ ऐसा ही व्यवहार होता है. इस घटना ने करतार सिंह सराभा को बहुत ज्यादा प्रभावित किया.



वर्ष 1914 में भारतीय लोग विदेशों में जाकर या तो बंधुआ श्रमिकों के रूप में काम करते थे या फिर अंग्रेजी फौज में शामिल होकर उनके साम्राज्यवाद को बढ़ाने में अपनी जान दे देते थे. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिर्फोनिया एट बर्कले में दाखिला लेने के बाद करतार सिंह ने अन्य लोगों से मिल भारत को आजाद कराने के लिए कार्य करना शुरू किया.

गदर पार्टी और समाचार पत्र का प्रकाशन
21 अप्रैल, 1913 को कैलिफोर्निया में रह रहे भारतीयों ने एकत्र हो एक क्रांतिकारी संगठन गदर पार्टी की स्थापना की. गदर पार्टी का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष द्वारा भारत को अंग्रेजी गुलामी से मुक्त करवाना और लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना करना था. 1 नवंबर, 1913 को इस पार्टी ने गदरनामक एक समाचार पत्र का प्रकाशन करना प्रारंभ किया. यह समाचार पत्र हिंदी और पंजाबी के अलावा बंगाली, गुजराती, पश्तो और उर्दू में भी प्रकाशित किया जाता था. गदर का सारा काम करतार सिंह ही देखते थे. यह समाचार पत्र सभी देशों में रह रहे भारतीयों तक पहुंचाया जाता था. इसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन की क्रूरता और हकीकत से लोगों को अवगत करना था. कुछ ही समय के अंदर गदर पार्टी और समाचार पत्र दोनों ही लोकप्रिय हो गए.

पंजाब में विद्रोह
1914 में प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी सेना युद्ध के कार्यों में अत्याधिक व्यस्त हो गई. इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए गदर पार्टी के सदस्यों ने 5 अगस्त, 1914 को प्रकाशित समाचार पत्र में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध डिसिजन ऑफ डेक्लेरेशन ऑफ वार नामक लेख प्रकाशित किया. हर छोटे-बड़े शहर में इस इस लेख की कॉपिया वितरित की गईं. करतार सिंह गदर पार्टी के दो अन्य सदस्यों और काफी के साथ कोलम्बो होते हुए कलकत्ता पहुंचे. युगांतर के संपादक जतिन मुखर्जी के परिचय पत्र के साथ करतार सिंह रास बिहारी बोस से मिले. करतार सिंह ने बोस को बताया कि जल्द ही 20,000 अन्य गदर कार्यकर्ता भारत पहुंच सकते हैं. सरकार ने विभिन्न पोतों पर गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया. लेकिन फिर भी लुधियाना के एक ग्राम में गदर सदस्यों की सभा हुई. इस सभा में धनी लोगों के घर चोरी कर हथियार खरीदने का निर्णय लिया गया. 25 जनवरी, 1915 को रास बिहारी बोस के आने के बाद 21 फरवरी से सक्रिय आंदोलन की शुरूआत करना निश्चित किया गया. फिरोजपुर छावनी में चोरी करने के बाद अंबाला और दिल्ली जाना निर्धारित हुआ.

विद्रोह की असफलता
कृपाल सिंह नामक पुलिस के एक मुखबिर ने अंग्रेजी पुलिस को इस दल के कार्यों और योजनाओं की सूचना दी. पुलिस ने कई गदर कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया. इस अभियान की असफलता के बाद सभी लोगों ने अफगानिस्तान जाने की योजना बनाई. लेकिन बीच रास्ते में ही करतार सिंह ने अपने गिरफ्तार साथियों के पास वापिस लौटने का निर्णय कर लिया. 2 मार्च, 1915 को करतार सिंह अपने दो साथियों के साथ वापिस लायलपुर, चौकी संख्या-5 पहुंचे. वहां पहुंच उन्होंने तैनात सेना अफसरों से विद्रोह किया, लेकिन आखिरकार उन्हें साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.

13 सितंबर, 1915 को करतार सिंह और उनके साथियों को लाहौर सेंट्रल जेल भेज दिया गया. वर्ष 1914-15 में अंग्रेजों के विरुद्ध पहली साजिश में 24 लोगों को फांसी की सजा दी गई. कोर्ट ने सभी पकड़े गए विद्रोहियों में से करतार सिंह को सबसे ज्यादा खतरनाक ठहराया. करतार सिंह को मात्र 19 वर्ष की आयु में 16 नवंबर, 1915 को फांसी दी |

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